मत्ती 5:4 ”धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं”

मत्ती 5:4 “धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएँगे।”

हम मत्ती रचित सुसमाचार मे से यीशु मसीह के पहाड़ी उपदेश पर अध्ययन कर रहे थे, अतः आइए वहीं से शुरू करें जहां हमने पिछली बार समाप्त किये थे, विशेषकर मत्ती 5 मे से धन्य वाणी या वचनों को हमने देखना आरम्भ किये थे कि यह विशेषताएँ आत्मिक गुणें हैं, जो हर सच्चे विश्वासी में देखा जाना है और देखा जाता है, और वह पहला धन्य वचन है, ‘’धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।‘’ मत्ती 5:3

हमने देखे थे कि ‘’मन के दिन’’ होना या ‘’आत्मा के दिन’’ होने का वास्तव में क्या अर्थ है? https://biblestudyinhindi.com/matthew-5-1-3/ , यह कुछ ऐसा विषय नहीं है जिसे हम अपने शारीरिक जन्म से ही स्वाभाविक रूप से पाते हैं। बल्कि यह परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्य का प्रतिफल है।

यदि वास्तव में आपके जीवन मे ये लक्षण और गुणें आजतक कभी नहीं रहे है, कि आपने वास्तव में “मन के दीनता” को आजतक कभी भी एहसास और महसूस नहीं किये है, ताकि सम्पूर्ण रीति से विश्वास के द्वारा  मसीह पर जीवन के लिए भरोसा किया जा सके, और यदि आपने वास्तव में परमेश्वर के धार्मिकता के लिए कभी भूखे और प्यासे नहीं रहे है, तो इससे यह प्रदर्शित होता है कि आप अभी भी खोए  हुए स्थिति में हैं, आप अभी भी अपने अपराधों और पापों में मरे हुए हैं और आपको परमेश्वर के राज्य को देखने और उसमें प्रवेश कर पाने के लिए नये सिरे से जन्म लेना अवश्यक है।

और जैसे जैसे हम अपने जीवनो को जांचने लगे, आइए आज हम दूसरी धन्य वचन को देखते है।

मत्ती 5:4 “धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएँगे।”

क्या सचमुच वे लोग सच्चा रीति से आनन्दित हैं जो सचमुच शोक मनाते हैं? और वे वही हैं जिनके बारे में यीशु कहते हैं कि उन्हें शांति अर्थात सांत्वना दी जाएगी?

यीशु मसीह यहा जो कह रहे है, यह संसार और संसारिक लोग जो सोचते और जानते है, यह उसके बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि संसार वह सब कुछ कर रही है जो वह कर सकती है; जैसे मनोरंजन, पैसा उत्पन्न , शक्ति का प्रयोग, मजे की तलाश ..आदि, लेकिन क्यो? “शोक” और “विलाप” से बचने के लिए। लेकिन यीशु हमें यहां जो बता रहे हैं वह है वास्तव में ‘’धन्य हैं वे जो शोक करते हैं” मत्ती 5:4

लेकिन यह किस प्रकार का शोक है? यह सबसे गंभीर प्रकार का शोक है। परन्तु, इससे पहले कि हम आगे बढ़ें और देखें कि यीशु यहाँ किस प्रकार के शोक का बात कर रहे है, आइए यह समझने का प्रयास करें कि यह किस प्रकार का शोक नहीं है।

1. यह किस प्रकार का शोक नहीं है?

बाइबल में विभिन्न प्रकार के शोकों का उल्लेख है, आइए उनमें से कुछ पर नजर डालें।

  • अकेलेपन का शोक:- भजन 42:1-3 मे हम एक प्रकार का शोक को पाते है, यह परमेश्वर की अनुपस्थिति को अनुभव कर स्वंय को अकेलापन मे पाने का शोक है। परमेश्वर के सन्तान के लिए आँसू सामान्य हैं, जो स्वंय को अकेलापन मे और परमेश्वर से दूर महसूस करता है।
  • परमेश्वर के सन्तानों का देखभाल करने और उनके लिए चिंता करने का आँसू:- प्रेरित 20:31
  • सांसारिक दुःख, पापपूर्ण इच्छाओं और अभिलाषाओं को पूरा नही कर पाने का शोक या आँसू:- इब्रानियों 12:16-17
  • अपने प्रियजनों या किसी और की मृत्यु पर शोक:- यूहन्ना 11:31, 2 शमूएल 18:33

जब यीशु कहते हैं, “धन्य हैं वे शोक करते हैं”। वह अकेलेपन के शोक के बारे में बात नहीं कर रहा है, न ही अपने प्रियजनों की देखभाल और चिंता के दुःख के बारे में बात कर रहा है, न ही यीशु अधर्मी/पापपूर्ण/सांसारिक शोक के बारे में बात कर रहा है, न ही यह किसी की शारीरिक मृत्यु पर शोक करने के बारे में वह बात कर रहा है। वरन यीशु एक ईश्वर – भक्ति के शोक के बारे में बात कर रहे हैं।

आइए 2 कुरिन्थियों 7:10 को पढ़े क्योंकि परमेश्‍वरभक्‍ति का शोक ऐसा पश्‍चाताप उत्पन्न करता है जिसका परिणाम उद्धार है और फिर उससे पछताना नहीं पड़ता। परन्तु सांसारिक शोक मृत्यु उत्पन्न करता है।”

2. यह किस प्रकार का शोक है?

यह एक गंभीर, परमेश्वर-भक्ति का शोक है। आप अपने अकेलेपन को लेकर शोकित हो सकते हैं, आप अपने मसीह मे भाइयों के बारे में चिंता के आँसू बहा सकते हैं, यह उल्लेखनीय है, और हमें शोक मनाने वालों के साथ शोक मनाना चाहिए। लेकिन यह वह शोक नहीं है जिसके बारे में यीशु, मत्ती 5:4 में बात कर रहे हैं। अकेलेपन से और भाइयों की चिंता के लिए शोक करना, और पापपूर्ण इच्छाओं (सांसारिक दुःख) को तृप्त न कर पाने के लिए शोक करना, ये शोक जीवन नहीं लाएंगे।

केवल एक प्रकार का शोक है जो परमेश्वर- भक्ति का शोक कहलाता है, जो आपको पश्चाताप और उद्धार की ओर ले जाता है। तो फिर ये कैसा शोक है? जो पश्चाताप और उद्धार की ओर ले जाता है? यह पाप के प्रति शोक है, यह अपने पापो को पहचानकर शोकित होना को दर्शाता है, इसलिये ऐसा शोक पश्चाताप (पाप से फेरना) को उत्पन्न करता है।

“धन्य हैं वे जो शोक करते हैं”, यहां आप शोक इसलिए नहीं कर रहे क्योंकि आप अकेलापन और निराशा महसूस करते हैं, न तो यह भाइयों के प्रति प्रेम और चिन्ता का आंसू है, न ही यह किसी के शारीरिक रुप से मारा जाने पर आता शोक है। यह उस तरह का भी शोक नहीं है जहां आप शोक करते हैं क्योंकि आप जो चाहते हैं वह आपके पास नहीं है।

यह वह शोक है; जहा आप शोक करते है क्योंकि आप अपने जीवन में पाप की वास्तविकता को देख पाते हैं, क्योंकि आप अपने जीवन की आत्मिक दीनता (मत्ती 5:3) को देखने और समझने और महसूस करने में सक्षम हो रहे हैं । आप इस मन के दीनता का भार को देख पा रहे हैं, और शोकित हो रहे हैं। आप यह पहचानने में सक्षम हो रहे हैं कि हम आत्मिक रूप से असमर्थ हैं, (लाजर के जैसे), हमारे पास अपनी मदद करने की कोई क्षमता नहीं है, और हम जीवन के लिये पूरी तरह से परमेश्वर के कृपा और दया पर निर्भरशील हैं।

यह यीशु मसीह के दृष्‍टान्तों मे से उस चुंगी लेनेवाले के जैसे स्थिति है, परन्तु चुंगी लेनेवाले ने दूर खड़े होकर, स्वर्ग की ओर आँखें उठाना भी चाहा, वरन् अपनी छाती पीटपीटकर कहा,हे परमेश्‍वर, मुझ पापी पर दया कर!” लूका 18:13

लूका 18:14 में यीशु कहते हैं कि यही मनुष्य (चुंगी लेनेवाले) धर्मी ठहराया गया, जो अपनी मन के दीनता और अपने जीवन में पाप की वास्तविकता को समझते और जानते थे, और उस पर शोक करते हुए पूरी तरह से परमेश्वर की दया पर निर्भर थे।

यदि समान, “मन के दीनता” के भावना या वास्तविकता आप में नहीं है और यदि यह अभी तक शुरू ही नहीं हुई है, और यदि आपने कभी भी अपनी पापपूर्णता पर परमेश्वर-भक्ति के शोक से शोकित नही हुए है, और उससे फेरकर पूरी तरह से यीशु मसीह में परमेश्वर की कृपा और दया पर निर्भर नहीं हुए हैं, तो आप अभी तक सच्चे ईसाई नहीं हैं, क्योंकि यह  वास्तविकताएँ और विशेषताएँ स्वर्ग के राज्य के लोगों का अंश हैं।

आइए, बतशेबा के खिलाफ पाप के बाद दाऊद के जीवन पर नजर डालें (भजन 51:1-4, 10, 12)।  दाऊद अपने पापों पर शोकित हुए, उसने अपने पापों को मान लिए, उन्होंने सच्चा पश्चाताप किये और परमेश्वर ने उसे क्षमा प्रदान किया और  दाऊद को शुद्ध कर दिया।

और फिर दाऊद भजन 32 मे कहते है, ‘’1क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढाँपा गया हो। 2क्या ही धन्य है वह मनुष्य जिसके अधर्म का यहोवा लेखा न ले, और जिसकी आत्मा में कपट न हो। 3जब मैं चुप रहा तब दिन भर कराहते कराहते मेरी हड्डियाँ पिघल गईं। 4क्योंकि रात दिन मैं तेरे हाथ के नीचे दबा रहा; और मेरी तरावट धूप काल की सी झुर्राहट बनती गई। 5जब मैं ने अपना पाप तुझ पर प्रगट किया और अपना अधर्म न छिपाया, और कहा, “मैं यहोवा के सामने अपने अपराधों को मान लूँगा,” तब तू ने मेरे अधर्म और पाप को क्षमा कर दिया।‘’

सचमुच आनन्दित और धन्य है वे जो शोक करते है, क्योंकि जो लोग अपने पापों पर परमेश्वर – भक्ति के शोक से शोकित होते हैं, वे ही क्षमा किए जाते हैं… दुनिया के बाकी लोग, जिनमे यह वास्तविकता नही है, वे बिना किसी वास्तविक शान्ति और सान्त्वना के जीवन जीते हैं। तो, आशा रखते है आपको इस सत्य का चित्रण मिल गया है।

ध्यान से सुने, बाइबल मे हम देखते हैं कि दाऊद अपने जीवनकाल में अपने अकेलेपन को लेकर शोकित हुए, उसने हार की निराशा के आँसू का अनुभव किया, वह तब शोकित हुए जब उसके प्रियजनों की मृत्यु हुई (विशेषकर उसके पुत्र के, 2 शमूएल 18:33)। लेकिन किसी भी प्रकार का शोक उतना मजबूत नहीं था, जितना की उसके पापों के कारण वे शोकित हुए। दाऊद के हृदय को उसके अपने पापों से अधिक अन्य किसी चीज़ ने शोकित नहीं किया।

फिर जब उसने मन फेरकर पश्चाताप किया और अपने पापों को स्वीकार किया, तो परमेश्‍वर ने उसे क्षमा कर दिया और उसे सांत्वना दी, और इसलिए दाऊद कहता है “क्या ही धन्य है वह जिसका अपराध क्षमा किया गया, और जिसका पाप ढाँपा गया हो।” भजन 32:1

मैं आज आपसे पूछना चाहता हूं (हो सकता है कि आप बेहतर जीवन, और बेहतर स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए यीशु के पास आए हों, और यह ठीक है)। परन्तु क्या आप परमेश्वर के पास उस प्रकार से आये हैं जिस प्रकार लूका 18 का चुंगी लेनेवाले आया था? जिस प्रकार दाऊद आये है? आपकी आत्मिक दुर्दशा, आपकी “मन की दीनता” और स्वयं की सहायता करने में असमर्थता को देखकर, और फलस्वरूप स्वंय का इस स्थिति को देखकर शोक मनाते हुए, और वहा से मुड़ते हुए, अपने आप को पूरी तरह से परमेश्वर की कृपा और दया पर उंडेलते हुए? क्या आप जीवन के लिये इसी रीति से यीशु के पास आये हैं?

यदि आप इस तरह से यीशु के पास कभी नहीं आये है, तो आपको बहुत चिंतित होना चाहिए, कि क्या आप वास्तव में उद्धार के लिये यीशु के पास आए? ‘ओह’ कि परमेश्वर पाप की वास्तविकता और आपके जीवन की आत्मिक दरिद्रता और आत्म-धोखे को देखने के लिए आपकी आंखें खोल दें, और आपको इससे फेरकर उद्धार के लिए मसीह के पास आने की कृपा प्रदान करें।

पतित मनुष्यों मे कोई भी ऐसा नही है जिन्होंने स्वर्ग के राज्य में प्रवेश किये है और अपने पाप के प्रति शोक से पहचाना न जाते हो। अपने जीवन की पापपूर्णता और आत्मिक दरिद्रता को पहचानना और देखना और महसूस करना आपको ईश्वर-भक्ति के शोक की ओर ले जाता है, और यह शोक पश्चाताप की ओर ले जाता है, और यह पश्चाताप आपको उद्धार की ओर ले जाता है।

पाप का बोध या चेतना हृदय परिवर्तन से पहले होना चाहिए और होता है, और उसके बाद भी होना चाहिए और होता है। पाप के कारण एक विश्वासी का शोक और कराहना इस पृथ्वी पर अंतिम दिन तक जारी रहता है।

“क्योंकि हम जानते हैं कि सारी सृष्‍टि अब तक मिलकर कराहती और पीड़ाओं में पड़ी तड़पती है; और केवल वही नहीं पर हम भी जिनके पास आत्मा का पहला फल है, आप ही अपने में कराहते हैं; और लेपालक होने की, अर्थात् अपनी देह के छुटकारे की बाट जोहते हैं।” रोमियों 8:22-23

पौलुस और सभी सच्चा विश्वासीया,अपने अपने जीवन में निवास करने वाले पाप की शक्ति की उपस्थिति के कारण कराहते हैं। यह लड़ाई है जो हमारे हृदय परिवर्तन के बाद भी हमारे भीतर चलती है, यह शरीर के क्रिया के विरुद्ध हमारी नई प्रकृति की लड़ाई है, कई बार इसमे हमारी जीत भी होती है और कभी असफलताएं भी। और पाप के खिलाफ यह लड़ाई इस जीवन भर हमारे आखिरी दिन तक जारी रहेगी, जीवन के अन्त तक हम लड़ते हैं, कराहते हैं और शोक मनाते हैं क्योंकि हम अपने पाप से तंग आ चुके हैं और इससे छुटकारा पाना चाहते हैं। इसीलिए एक विश्वासी के जीवन में पश्चाताप और पाप को मान लेना चलती रहती है। और आप इसे दूसरे धन्य वचन में भी करते हैं।

यीशु कहता है “धन्य है वे जो शोक करते है”, इस शोक करने का स्थिति को वर्णन करने के लिये यूनानी मे जिस शब्द का उपयोग किया गया है, वह “penthountes” “पेन्टहाउंट्स” है, जिसका अर्थ है, धन्य है वे जो शोक करते जाते है, यह एक सतत क्रिया है, यानी यह निरंतर चलते जाने का क्रिया है।

अब तक मे हमने देखे है, यीशु का क्या अर्थ है? जब उसने कहा कि धन्य हैं वे जो शोक करते हैं, यह अकेलेपन का, अस्वीकृति का, या भाईचारे के चिन्ता या प्रेम का शोक नहीं है, न ही यह हमारे प्रियजन के मारा जाने के प्रति शोक को दर्शाता हैं। बल्कि यह ईश्वर-भक्ति का शोक और दुःख है। मेरे अपने पापों पर शोक, एक ऐसा शोक जो आवश्यक रुप से आत्मा में दीन होने से उत्पन्न होता है, जो एक व्यक्ति को सच्चा पश्चाताप और उद्धार की ओर ले जाता है।

फिर भी, यह शोक मसीही जीवन में एक निरंतर कार्य है, इसलिए यह विश्वासीयों का अपने पापों पर शोक करना को भी दर्शाता है, आइए एक कदम आगे बढ़ते है, यह मेरे अपने पाप पर शोक है, हाँ, लेकिन केवल उतना ही नही वरन साथ ही साथ यह उन कारणों के लिए भी शोकित होना को दर्शाता है जिनके लिए यीशु शोकित हुए थे (लूका 19:41)। यीशु  यरूशलेम के लिए शोकित हुए, क्योंकि उसने देखा कि यह शहर उसे अस्वीकार कर रहा है, और खुद पर दंड ला रहा है। सच्चा विश्वासी यीशु की तरह ही शोकित होते है, दूसरों के पापों और उनके मसीहा के प्रति अविश्वास और अस्वीकृति और उनके द्वारा खुद पर लाये जा रहे दंड के कारण।

जॉर्ज व्हाइटफ़ील्ड ने कहे थे “आप मुझे विलाप करने के लिए दोषी ठहराते हैं, लेकिन मैं इसमें कैसे मदद कर सकता हूं  जब आप अपने लिए नहीं रोएंगे, हालांकि आपकी अनन्त आत्माएं विनाश के कगार पर हैं।”

3. शोक करनेवालों के लिए प्रतिज्ञा

“धन्य हैं वे जो शोक करते हैं” और यीशु यहीं नहीं रुकते, बल्कि वह आगे कहते हैं ” क्योंकि वे शांति पाएँगे।” मत्ती 5:4

इस शान्ति प्राप्त करने का प्रतिज्ञा को तीन पहलुओं मे देखते है।

a) हृदय परिवर्तन के समय:- वह मनुष्य जो वास्तव में अपनी पापी स्थिति और अपनी आत्मिक शून्यता पर शोक करते है, वह मनुष्य जिसके पास ईश्वर-भक्ति का शोक है, जो उसे सच्चे पश्चाताप की ओर ले जाता है,  वह व्यक्ति पवित्र आत्मा के कार्य से यीशु के पास आता है और देख पाता है कि केवल यीशु ही उद्धार का एकमात्र आशा है, कि यीशु उसके पापों के लिए मारा गया, और उसके उद्धार के लिए मृतकों मे से जी उठा, और इस तरह वह व्यक्ति उद्धार के लिए केवल मसीह पर सच्चा विश्वास और भरोसा करता है, और तुरंत उस व्यक्ति को सान्त्वना मिलता है, और मसीह में सच्चा आनन्द, शांति, क्षमा वह पाता है।

b) मसीही जीवन में:- एक विश्वासी के वास्तविक रूप से हृदय परिवर्तन के बाद भी, हम कठिन समय से गुजरते हैं, हम पाप में गिर जाते हैं, फलस्वरूप हमारे हृदय हजारों टुकड़ों में टूट जाते हैं, और हम दाऊद के तरह इस पर शोकित होते हैं, और परमेश्वर के दया से हम अपने पापों से फेरते है और इसे मान लेते। और जिस क्षण हम पश्चाताप करते हुए मसीह की ओर फेरते और लौटते हैं, उनकी आनन्द , उद्धार का हर्ष हममे लौट आता है, और हमें शान्ति अर्थात सान्त्वना मिलता है, यह एक ऐसे सान्त्वना है जो शोक के साथ-साथ चलता है।

c) अनन्त राज्य में सान्त्वना:-

प्रकाशित वाक्य 21:1-5 ”1फिर मैं ने नये आकाश और नयी पृथ्वी को देखा, क्योंकि पहला आकाश और पहली पृथ्वी जाती रही थी, और समुद्र भी न रहा। 2फिर मैं ने पवित्र नगर नये यरूशलेम को स्वर्ग से परमेश्‍वर के पास से उतरते देखा। वह उस दुल्हिन के समान थी जो अपने पति के लिये सिंगार किए हो। 3फिर मैं ने सिंहासन में से किसी को ऊँचे शब्द से यह कहते हुए सुना, “देख, परमेश्‍वर का डेरा मनुष्यों के बीच में है। वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्‍वर आप उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्‍वर होगा। 4वह उनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा; और इसके बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहली बातें जाती रहीं।” 5जो सिंहासन पर बैठा था, उसने कहा, “देख, मैं सब कुछ नया कर देता हूँ।” फिर उसने कहा, “लिख ले, क्योंकि ये वचन विश्‍वास के योग्य और सत्य हैं।”

जो लोग इस जीवन में ईश्वर-भक्ति के शोक से शोकित होते है और विलाप करते है, वे अनन्त काल के लिये अब और शोकित नहीं होंगे जब परमेश्वर का अनन्त राज्य को स्थापित किया जाएगा, तब स्वंय परमेश्‍वर का डेरा मनुष्यों के बीच में होगा। वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्‍वर आप उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्‍वर होगा।
क्या ही सान्त्वना! और आनन्द! का विषय है।

परन्तु हाय! उन लोगों पर जिन्होंने इस जीवन में अपने पापों के प्रति कभी शोकित नहीं हुए है , जिन्होंने इस जीवन में कभी भी परमेश्वर-भक्ति के शोक से शोकित नहीं हुए, क्योंकि तुम अनन्त काल के लिए विलाप करोगे (निराशा और नरक के पीड़ा मे) और तुम्हारे लिए वहा कोई शान्ति और सान्त्वना नहीं होगा।  ”27परन्तु वह कहेगा, ‘मैं तुम से कहता हूँ, मैं नहीं जानता तुम कहाँ से हो। हे कुकर्म करनेवालो, तुम सब मुझ से दूर हो।’ 28वहाँ रोना और दाँत पीसना होगा; जब तुम अब्राहम और इसहाक और याकूब और सब भविष्यद्वक्‍ताओं को परमेश्‍वर के राज्य में बैठे, और अपने आप को बाहर निकाले हुए देखोगे;’‘ (लूका 13: 22-28)

लेकिन, धन्य है वे जो शोक करते जाते है, क्योंकि वे सांत्वना पा चुका है, और पा रहे है, और पाएँगे। … यह वचन विश्वास के योग्य और सत्य है।

आइए आज हम, अपने स्वयं के पापों और दूसरों के पापों के लिए शोक करते जांए, और परमेश्वर हमें अनुग्रह प्रदान करें कि हम परमेश्वर-भक्ति के शोक से शोकित हो सके, जो सच्चा पश्चाताप को उत्पन्न करता है, जिसका परिणाम आखिरकार उद्धार है।

 

 

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