मत्ती 5:1-3 “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं’’

मत्ती रचित सुसमाचार के सभी अध्यायों और पदों को स्वंय प्रेरित मत्ती ने लिखे है, जिसे प्रारंभिक कलीसिया के पिताओं ने भी सर्वसम्मति से स्वीकार किया है। और जब आप मरकुस 2:15 और लूका 5:29 मे समान घटना का वर्णन को मत्ती 9:10  के साथ तुलना करे, जहा मरकुस मत्ती को संबोधित करते हुए कहते है, उसके (मत्ती के) घर मे(मरकुस 2:15), और लूका भी मत्ती को संबोधित करते हुए कहते है लेवी ने अपने घर में (लूका 5:29), वरन मत्ती 9:10 मे मत्ती अपने घर को संबोधित करते हुए केवल घर मे कहते है, क्योंकि मत्ती खुद इस लेख मे किसी अन्य जन का नही वरन अपने ही घर का उल्लेख कर रहा है।

मत्ती रचित सुसमाचार मे से जिस अंश को हम अध्ययन करने जा रहे है उसे हम मत्ती अध्याय 5 से अध्याय 7 मे पाते है, जिसे सम्मिलित रूप से ”पहाड़ी उपदेश” कहा जाता है, पहाड़ी उपदेश मे मत्ती अध्याय 5,6 और 7 शामिल हैं, और हम इसे क्रम मे, भाग दर भाग, पद दर पद, देखेंगे।

  • सामान्य परिचय: पहाड़ी उपदेश के उदेश्य:

  1. ”सच्चे चेलों” के लिए यह पवित्रीकरण का आह्वान है:- यीशु यहा अपने चेलों से बात कर रहे हैं (5:2), यीशु उन्हें आश्वासन दे रहे हैं कि “स्वर्ग का राज्य’’ उन्ही का है, और वे राज्य में प्रवेश करने जा रहे हैं। फिर भी व्यवस्था के संबंध में समकालीन रब्बीवादी शिक्षाओं के विपरीत, यीशु ने शिष्यों के व्यावहारिक जीवन के लिए पुराने नियम व्यवस्था का सही अर्थ सिखाया। मत्ती 5:17 से 7:12 में यीशु अपने चेलों को पवित्रीकरण (पवित्रता मे प्रगती करने) का सिद्धांतों को देते हैं जैसे जैसे यीशु के सच्चे चेले उस राज्य के आने की प्रतीक्षा करते हुए स्वंय को उसके लिए प्रस्तुत करते है।
  2. ”भीड़” (अपरिवर्तित) लोगों के लिए यह उद्धार (हृदय परिवर्तन)का आह्वान है :- इस तथ्य का ऐहसास होना, कि भीड़ भी शामिल होने और सुनने के लिए आई थी, मत्ती 5:17 से अध्याय 7 मे, निहितार्थ यह है कि, हां, यीशु के पास अपने शिष्यों के लिए निर्दिष्ट वचन है, लेकिन साथ ही साथ, बल्कि भीड़ के लिए भी विशिष्ट वचन है, ताकि वे लोग यीशु की शिक्षाओं पर और स्वयं यीशु के आधार पर अपना जीवन गठित करे, जो एकमात्र वह मार्ग है जिससे आप क्लेश मे बने रह सकेंगे या क्लेश से बचते हुए परमेश्वर के अनन्त स्वर्गीय राज्य में प्रवेश करेंगे। इसलिए, भीड़ के लिए एक चुनौती है, जो कि मूल रूप से यीशु को अपने अधिकार के रूप में स्वीकार करना और ग्रहण करना है, और यीशु के प्रभुत्व के प्रति स्वंय को समर्पण करना है, और यीशु जो कह रहे हैं उस पर विश्वास के साथ उचित प्रतिक्रिया देना है (जो कि सच्चे चेले लोग पहले ही कर चुके हैं)। सच्चे चेलों के के लिए यह पवित्रीकरण का आह्वान है  और भीड़ (अपरिवर्तित) लोगों के लिए यह उद्धार का आह्वान है।

आइए हम पहाड़ी उपदेश के अध्ययन को आरम्भ करते है, और इस पाठ मे सबसे पहला खण्ड है मत्ती 5:1-12, जिसे धन्य वाणी या धन्य वचन (The Beatitudes) कहा जाता है। और यीशु मसीह के अनुसार केवल एक ही प्रकार के इन्सानें है जो सच्चा रीति से आशीषित, आनन्दित और धन्य है, और उन इन्सानों का वर्णन को हम मत्ती 5:1-12 मे देख पाते हैं।

  • मत्ती 5:1-12 मे धन्य वचनों के महत्वपूर्ण निहितार्थ और शिक्षण:-

  1. इन धन्य वचनों के गुणों मे से सभी गुणें, सभी सच्चा विश्वासीयों का विशेषताएँ है।

कोई कैसे यह जान सकते है कि वह सचमुच परमेश्वर के राज्य के इन्सान है या नही? हम कसै जानेंगे कि क्या हम वाकई मे परमेश्वर के सच्चे सन्तानें है या नही? सभी सच्चे विश्वासीयों को यह गुणें जिसके विषय मे यीशु यहा (मत्ती 5:1-12 मे) बात करते है, प्रदर्शित करना है। और सभी सच्चे विश्वासीयों मे यह गुणें मौजूद होंगे। ऐसा नहीं है कि एक धन्य गुण एक विश्वासी के पास होंगे और दूसरा गुण किसी दूसरे विश्वासी के पास, नहीं!! वरन, धन्य बचन के सभी गुणें सभी सच्चा विश्वासीयों में दिखाई देंगे। हालांकि यह सच है कि किसी किसी विश्वासी में यह गुण अधिक मात्रा में होंगें और किसी किसी में थोड़ा कम मात्रा में, लेकिन यह निश्चित है कि प्रत्येक सच्चा विश्वासीयों में यह सभी गुणें मौजूद होंगे।

एक सच्चे विश्वासी में यह सभी गुणें क्यों दिखाई देंगे या प्रकट होंगे? इसका एक कारण यह है कि ये विशेषताएं और गुणें एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं, क्योंकि जब तक आप अपनी “आत्मा या मन के दीनता” (मत्ती 5:3) को नही पहचानेंगे तब तक आप शोक करने वाले और नम्र व्यक्ति  (मत्ती 5:4-5) नहीं हो सकते हैं, आप तबतक धार्मिकता के  भूखे और प्यासे नहीं होंगे (मत्ती 5:6) जब तक पहले आप अपनी आत्मा की ख़ालीपन और दरिद्रता को न देख लें।

       2.  इन गुणों मे से एक भी गुण शारीरिक प्रकृति से नही आते, वरन परमेश्वर के आत्मा के कार्य से।

इनमें से प्रत्येक विशेषताएँ और गुणें परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्य का परिणाम या प्रतिफल है, यह केवल परमेश्वर के अनुग्रह से है। किसी भी मनुष्य में स्वाभाविक रूप से (नए जन्म के बिना) ये स्वभाव और गुणें नहीं होते हैं। हमे आध्यात्मिक गुणों और शरीर के गुणों के बीच अंतर को जानना और समझना चाहिए। ऐसे लोग होते हैं जो स्वाभाविक रूप से विनम्र दिखाई दे सकते हैं। लेकिन यह वह गुण नहीं है जिसके विषय मे यीशु यहाँ कह रहे हैं, क्योंकि कोई भी इन्सान अपने शारीरिक जन्म से ही “मन के दीन” या “नम्र” इत्यादि के रूप मे पैदा नही होता।

जब हम मत्ती 5:3 से देखना शुरु करेंगे, तो हम यह देखना शुरू करेंगे कि “मन के दीनता” और “नम्रता” आदि जिसके बारे में मसीह यहा बात कर रहे हैं, वह वह नहीं है जो किसी अपरिवर्तित (जिसका नया जन्म नही हुआ है) मनुष्य में प्राकृतिक “दीनता” और “नम्रता” प्रतीत होती है। अपने शारीरिक जन्म और स्वभाव से कोई भी मनुष्य “मन के दीन” या “नम्र” इत्यादि नहीं होता। कई बार हम लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि फलाना व्यक्ति विश्वासी नहीं है, लेकिन वह कई तथाकथित ईसाइयों से बेहतर है क्योंकि वह “विनम्र” और “अच्छा” है, क्योंकि वह कभी बुरी भाषा का उपयोग नही करता, कभी शराब या तंबाकू का सेवन नही करता, और आप कहेंगे कि हो सकता है यीशु इसी तरह के व्यक्ति के बारे में बात कर रहे हों, लेकिन ऐसा नहीं है।

और मैं आशा और कामना करता हूं कि हम यह देखने मे सक्षम होंगे कि हमारे पास यहां (मत्ती 5:1-12 मे) जो कुछ है वह प्राकृतिक गुण और विशेषताओं का वर्णन नहीं है, बल्कि यह ऐसा विशेषताएँ है जो पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा परमेश्वर की अनुग्रह से उत्पन्न होता है।

धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं’’

आइए अब हम पहला धन्य वचन को देखना आरम्भ करते है।

  • मत्ती 5:1 ‘’वह इस भीड़ को देखकर पहाड़ पर चढ़ गया, और जब बैठ गया तो उसके चेले उसके पास आए।‘’

यह भीड़ वही है जिसका उल्लेख को हम मत्ती 4:25 मे पाते है, गलील और दिकापुलिस, यरूशलेम, यहूदिया और यरदन नदी के पार से भीड़ की भीड़ उसके पीछे हो ली।” 

इसी भीड़ को देखकर यीशु पहाड़ पर चढ़ गया, और यह गलील का पहाड़ है, यीशु इस पहाड़ पर चढ़कर “बैठ गया”, उन दिनों मे रब्बीयों के लिए बैठकर उपदेश देना सामान्य विषय हुआ करता था, और जब वे बैठकर उपदेश देते थे, तो उसने जो कहा वह आधिकारिक और औपचारिक होता था।

‘’तो उसके चेले उसके पास आए।‘’  निर्दिष्ट रूप से उसके बारह चेले, वे उनके चेले होने के साथ साथ उनके श्रोताएं भी थे।

  • मत्ती 5:2 ‘’और वह अपना मुँह खोलकर उन्हें यह उपदेश देनेलगा :’’ यीशु ने अपना मुँह खोलकर यानी  गंभीर विषय या विशेष प्रकाशन के सामग्री को प्रकाशित करते हुए उन्हें यह उपदेश देने लगा।
  • मत्ती 5:3 “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।‘’

यह मूलभूत विशेषता हैं, क्योंकि यदि पहले खाली न किया जाए, तो आप भरे नहीं जा सकते। यीशु के इस वचन से हम यह देखने वाले है कि

  1. “धन्य” का अर्थ क्या है?
  2. “कौन” धन्य है?
  3. “मन के दीनता” क्या नही है?
  4. “मन के दीनता” क्या है?
  5. “मन के दीन” व्यक्तियों से प्रतिज्ञा।
  • ‘’धन्य’’ का अर्थ क्या है? ‘’धन्य’’ का अर्थ है “सच्चा आनन्द” या “सच्चा रीति से आशीषित”, यानी , वह व्यक्ति जिस पर परमेश्वर ने विशेष कृपा की है और जो “वास्तव में आनन्दित” है। इस “धन्य” शब्द को यीशु मसीह द्वारा एक साथ नौ बार मत्ती 5:3-12 मे उपयोग किया गया है, हालांकि पुराने नियम पवित्रशास्त्र मे इस शब्द को अक्सर एक साथ केवल दो बार उपयोग किया गया है (जैसे भजन 32:1-2 मे)। जिससे हम यह कह सकते हैं कि यीशु मसीह हमारे प्राणों को सच्चा एंव अनंत आनंद और आशीष और संतुष्टि देने के लिए आए हैं। यह धन्यता कोई अस्थायी या संसारिक परिस्थितियों मे केन्द्रित ख़ुशी की अनुभूति नहीं है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें एक व्यक्ति परमेश्वर के साथ एक आनंदमय रिश्ते और संबंध में होता है, जो कि उन लोगों से संबंधित है जिन्होंने यीशु के व्यक्ति और सेवकाई के प्रति विश्वास के द्वारा सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है।
  • कौन धन्य है? यीशु कहता है, “धन्य हैं वे’’ मत्ती 5:3,  यह आनन्द और धन्यता कुछ विशेष व्यक्तियों का है, भला वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं? हालांकि यीशु यह नही कहता कि धन्य है वे जो स्वास्थ्य, सांसारिक धन और समृद्धि में समृद्ध हैं। संसार के लोग (और कई तथाकथित स्थानीय कलीसिया सहित) कहती है कि धन्य या आनन्दित वे हैं जो संसारिक, आर्थिक और जागतिक धन मे अमीर हैं, और दुनिया में महान और सम्मानित आदि हैं । लेकिन यीशु का यह धन्य वचन एक अंधी और अभिलाषी दुनिया की अफवाहों की गलतियों को सुधारने के लिए ठहराया गया है। यीशु द्वारा वर्णित सच्चा धन्य व्यक्तियों की एक विशेषता यह है कि ऐसे व्यक्ति आत्मा के दीन, या मन के दीन” होते हैं। यीशु कहते है “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं,’’ मत्ती 5:3
  • मत्ती 5:3 “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं,’’

इससे पहले कि हम यह देखें कि “मन के दीन” होने का वास्तव में क्या मतलब है, आइए यह देखें और विचार करें कि “मन के दीन” होने का मतलब क्या नहीं है?

  1. यह शारीरिक आर्थिक गरीबी की प्रशंसा और बढ़ावा नहीं है:- एक अपरिवर्तित व्यक्ति जो संसारिक धन में गरीब है, वह आत्मिक रीति से एक अमीर अपरिवर्तित व्यक्ति के समान स्थिति में है। संसारिक धन से निर्धन होने के द्वारा एक व्यक्ति स्वर्ग राज्य के अधिक निकट नहीं पहुँचता। आर्थिक गरीबी आध्यात्मिकता की गारंटी नहीं देती। अधिकांश रोमन कैथोलिक टिप्पणीकार इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं, वे इसे स्वैच्छिक आर्थिक गरीबी के लिए अधिकार देने वाला वचन मानते हैं, कि यीशु धन्य उन्हे कह रहे है “जिन्होंने जानबूझकर खुद को अर्थिक रूप से गरीब बनाया है।” लेकिन सच यह है कि यह किसी के आर्थिक स्थिति के विषय मे नही है, वरन यह स्वयं के आत्मिक स्थिति के बारे में एक व्यक्ति के दृष्टिकोण के बारे में है, यही मायने रखता है, यह इस बारे में नहीं है कि मेरे पास बाहरी तौर पर क्या है और क्या नहीं, बल्कि यह है कि मैं खुद को कैसे और किस दृष्टिकोण से देखता हूं। क्या मैं यह देखने और पहचानने में सक्षम हूं कि मैं वास्तव में परमेश्वर के सामने कौन और क्या हूं?
  2. मन के दीनताका मतलब यह नहीं है कि हमें कमजोर हो जाना चाहिए या हममे साहस की कमी हो जानी चाहिए:- ऐसे लोग हैं जो स्वाभाविक रूप से कमजोर पैदा होते हैं, एक तरह से उनमें साहस की कमी होती है, अतः वे चाहते हैं कि दूसरे लोग उनके आगे बढ़ें, ताकि वह खुद पीछे रह सके। लेकिन यीशु इस प्रकार के चरित्र का बात नही कर रहे है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, ”धन्य वचन” (मत्ती 5:3-12) के कोई भी गुण और विशेषताएँ हमारे शारीरिक जन्म से स्वाभाविक रूप से नहीं आती है, इसलिए “मन के दीनता” होने का मतलब स्वभाव में शर्मीला होना या साहस की कमी का होना आदि नहीं है।
  • अगर ये सबमन के दीनतानहीं है, तो फिरमन के दीनता” क्या है?

“मन के दीन” को वास्तविक रीति से “आत्मा के दीन” भी वर्णित किया जा सकता है क्योंकि यूनानी बाइबल मे इसे “आत्मा के दीन” कहा गया है। पहले यह देखते है कि दीनशब्द का अर्थ क्या है? सुसमाचारों में “दीन या दरिद्रता” का वर्णन करने के लिए दो परिचित शब्दों का इस्तेमाल किया गया हैं, जिसे यूनानी मे “Ptochos / पटोचोस” और “Penichros / पेनीक्रोस” कहा गया है ।

  1. Ptochos / पटोचोस :- (लूका 16:20) ‘’पटोचोस’’ शब्द को लाजर की कंगालियत और दरिद्रता का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया गया है, ”पटोचोस” का अर्थ है “सिकुड़ा हुआ गरीबी, या समग्र दरिद्रता, या कंगालियत। ”पटोचोस” वह है जो जीवित रहने के लिए पूरी तरह से किसी और पर निर्भरशील है; जैसे था लाजर।
  2. Penichros / पेनिक्रोस:- लूका 21:2 मे ‘’पेनिक्रोस’’ अर्थात ‘’कंगाल’’ शब्द को उस विधवा महिला का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जो कंगाल थे लेकिन उनके पास दो छोटे तांबे का सिक्कों था। वह गरीब थे, लेकिन पूरी तरह से बेसहारा भिखारी नहीं। कम से कम उसके पास खुद पर निर्भर रहने के लिए कुछ तो था।

और जिस शब्द को मत्ती 5:3 मेंमन के दीनताका वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है वह शब्द हैपोतोचोई” (Ptochoi) ​​है, जो लाजर की गरीबी का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किए गए कंगाल शब्द से जुड़ा है।

लूका 21:2 मे ”Penichros/ पेनिच्रोसगरीब विधवा के पास कम से कम कुछ था, लेकिन लाजर पूरी तरह से दरिद्र और कंगाल भिक्षुक था।

 यीशु कहते है  “धन्य हैं वे, जो मन के दीन (Ptochoi/ पोतोचोई) हैं,’’ जिसका मतलब यह है कि जैसे लाजर शारीरिक रूप से कंगाल, दीन एंव बेसहारा थे और जीवित रहने के लिए किसी और पर सम्पूर्ण रूप से निर्भरशील थे, उसी तरहधन्य है वेजो आध्यात्मिक रूप से ऐसे है, जो अपने आत्मिक दीनता को देखते, पहचानते, महसूस एंव अनुभव करते है, और जीवन के लिए सम्पूर्ण तरह से यीशु मसीह में निर्भरशील है, आत्मा या मन के दीन होने का यही अर्थ है।

आत्मा या मन के दीन होना, अहंकार और घमण्ड का अनुपस्थिति है, आत्मनिर्भरता का अनुपस्थिति है, इसका अर्थ एक ऐसे समझ का होना, एक ऐसा अनुभव का होना, एक ऐसा चेतना का होना है कि परमेश्वर की उपस्थिति में हम कुछ भी नहीं हैं।

डॉ. मार्टिन लॉयड का कहना है, ”जब हम परमेश्वर के आमने-सामने आते हैं तो यह हमारी पूर्ण शून्यता के बारे में जबरदस्त जागरूकता है… यह महसूस करना है कि हम कुछ भी नहीं हैं, और हमारे पास कुछ भी नहीं है, और हम परमेश्वर को उसके प्रति पूर्ण समर्पण तथा उसकी कृपा और दया पर पूर्ण निर्भरता के रूप मे देखते हैं।”

और यदि कोई व्यक्ति स्वयं को कुछ समझता है, और महसूस करता है कि वह परमेश्वर की उपस्थिति में कुछ है, सिवाय इस तथ्य के कि वह मन की अत्यंत दरिद्रता में है, तो इसका पूरी तरह से मतलब यह है कि आपने वास्तव में अभी तक परमेश्वर का सामना या परमेश्वर से मुलाकात नहीं की है।

आइए हम अपने आप से पूछें कि क्या हम वास्तव में “मन के दीन” हैं? क्या हम इस तथ्य को देखने, महसूस करने, पहचानने, समझने और एहसास करने मे सक्षम हुए हैं कि हम आध्यात्मिक रूप से पूरी तरह से वंचित और दरिद्र हैं और अब पूरी तरह से परमेश्वर की कृपा और दया पर निर्भरशील और विनम्र हैं?

  • मन के दीन व्यक्तियों से प्रतिज्ञा

“मन के दीन” व्यक्तियों को धन्य क्यों कहा गया है? यहा बताया गया एक कारण यह है कि क्योंकि “स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।”

  • मत्ती 5:3 “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।‘’

यहां किस राज्य की बात की गई है? यह राज्य वह राज्य है जिसका प्रतिज्ञा और भविष्यवाणी को पुराने नियम में किया गया था। जब यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले (मत्ती 3:2) और यीशु (मत्ती 4:17; 5:3)  और उनके शिष्यों ने “राज्य” का प्रचार किया, तो वे पुराने नियम की भविष्यवाणी मे प्रतिज्ञा किया गया राज्य की बात कर रहे थे। ऐसी भविष्यवाणियों में से एक को दानिय्येल 2:1-2, 11, 26-28, 31-35, 36 -45 में पाया जाता है, यही वह राज्य है, और इसके कई कारणें है।

  • पहला कारण यह है कि यहां मत्ती 5:3 में राज्य की कोई व्याख्या नहीं किया गया है, इसलिए हमें वापस पुराने नियम पवित्रशास्त्र मे जाना होगा और देखना होगा कि वहा किस राज्य के बारे में बात किया गया है।
  • इस दौरान यह संदेश इजराइल तक ही सीमित था। (मत्ती 10:5-6)
  • शिष्यों की प्रत्याशा इसी राज्य को लेकर था(20:20-21):- जो लोग यीशु के संदेश को सबसे करीब से सुन रहे थे, उन्होंने राज्य को पुराने नियम के अर्थ में देखा, और राज्य के दृष्टिकोण और विचार को नहीं बदला गया है।
  • और मत्ती 5:3 एंव बाकी के धन्य वचनों में अधिकांश प्रतिज्ञाएं भविष्य केसंदर्भमे हैं।

निश्चित रूप से, राजा यीशु आ चुके थे और ”स्वर्ग का राज्य” निकट आ गया था (मत्ती 3:2; 4:17), मसीहा का समय निकट आ गया था कि वे धार्मिकता के युग की शुरुआत करे और इज़राइल के शत्रुओं को वश में करे, और सभी परमेश्वर के लोगों को उनकी भूमि पर वापस ले जाए, और दाऊद के सिंहासन पर बैठकर यरूशलेम से शासन और राज्य करे।

लेकिन दुख की विषय यह है कि, क्योंकि एक राष्ट्र के रूप में अधिकांश इज़राइल ने मन नही फिराया और राजा यीशु को नहीं पहचाना और उन्हे अपना मसीहा के रूप मे स्वीकार नहीं किया, इसलिए प्रतिज्ञा किया गया यरूशलेम से प्रथ्वी पर मसीह के राज्य को स्थगित करना पड़ा, क्योंकि मत्ती  बाद में बताते है कि इस शाब्दिक वास्तविक राज्य को कुछ समय के लिए, भविष्य के लिए अलग रखा गया है।

यह महसूस करते हुए कि इज़राइल अंततः और आधिकारिक तौर पर यीशु को अस्वीकार करता है, इसलिए मत्ती  अध्याय 11 से अब यह नहीं कहा जाता है कि राज्य फिर से निकट आ गया है, बल्कि राज्य को मत्ती अध्याय 11 के बाद कुछ ऐसा देखा जाता है जो भविष्य में आएगा, उदाहरण के लिए, जब आप मत्ती अध्याय 12 से लेकर दृष्टान्तों में पहुँचते हैं, तो अंतत: युग के अंत तक गेंहू के साथ जंगली बीज को बोया जाता है, और अंतत युग के अन्त मे “राज्य के उत्तराधिकारियों” और ”राजा एंव उसके संदेश को अस्वीकार करने वालों” के बीच मे अंतर किया जाता है।

फिर भी, मसीह का आध्यात्मिक राज्य  वर्तमान में मौजूद है, लेकिन केवल उन लोगों के हृदयों में जिन्होंने राजा यीशु मसीह पर सच्चा विश्वास किया है। राजा यीशु आज दाऊद के सिंहासन मे बैठकर इस्राएल के राष्ट्र और सम्पूर्ण दुनिया पर उस तरह से शासन नहीं कर रहा है जैसा वह एक दिन करेगा, बल्कि वह आज उन सभी लोगों के जीवन पर राज्य करता है जो सच्चा विश्वास के आधार पर उसके अपने हैं।

बाहरी दृश्य पृथ्वी पर उनका वह राज्य अभी तक नहीं आया है, फिर भी राजा यीशु स्वयं उन लोगों में निवास करता है जो उसके हैं, मसीह अब उन लोगों में राज्य करता है जिन्होंने उसे सच्चा रीति से ग्रहण किया है, और वे लोग उस आनेवाले राज्य के नागरिक और वारिस ठहर चुके है, और जब वह राज्य आखिरकार आयेंगे तो वे सब उसमे प्रवेश करेंगे।

आइए अब देखें कि जब वह राज्य आख़िरकार लाया और स्थापित किया जाएगा तब क्या होगा?

मत्ती 25:31-34, 41  ‘’जब मनुष्य का पुत्र अपनी महिमा में आएगा और सब स्वर्गदूत उसके साथ आएँगे, तो वह अपनी महिमा के सिंहासन पर विराजमान होगा। और सब जातियाँ उसके सामने इकट्ठा की जाएँगी; और जैसे चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग कर देता है, वैसे ही वह उन्हें एक दूसरे से अलग करेगा। वह भेड़ों को अपनी दाहिनी ओर और बकरियों को बाईं ओर खड़ा करेगा। तब राजा अपनी दाहिनी ओर वालों से कहेगा, हे मेरे पिता के धन्य लोगो, आओ, उस राज्य के अधिकारी हो जाओ, जो जगत के आदि से तुम्हारे लिये तैयार किया गया है।…….“तब वह बाईं ओर वालों से कहेगा, ‘हे शापित लोगो, मेरे सामने से उस अनन्त आग में चले जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है।

धन्य और शापित लोगों का अलगाव होगा, जिन्हें धन्य कहा जाता है जो मसीह के भेड़ें है वे अंततः राज्य में प्रवेश करते हैं, लेकिन शापित लोगों को नरक में डाल दिया जाता है।

तो, इस राज्य के बारे में आप जो भी दृष्टिकोण रखें क्यो न, चाहे वह आपके लिए वर्तमान में हो, या भविष्य में आने वाला हो, वास्तव में जो बात मायने रखता है वह यह है कि क्या आप इस राज्य के वारिस और उत्तराधिकारी ठहर चुके हैं? क्या हम उनमें से हैं जिन्हें “धन्य” कहा जाता है? हम यह कैसे जानेंगे?

सबसे पहले, क्या हमने सचमुच यीशु पर सच्चा विश्वास किये है? और उसके प्रभुत्व मे स्वंय को समर्पण किये है? क्या हम इन गुणों को (जिसका वर्णन को मत्ती 5:3-12 मे किया गया है) अपने दैनिक जीवन में प्रकट कर रहे हैं? क्या हम सचमुच मसीह में धन्य, आनन्दित और संतुष्ट हैं?

वैसे तो, संपूर्ण मानव जाति वास्तविक रीति से परमेश्वर के सामने पूरी तरह से आध्यात्मिक दीनता में है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी लोग “धन्य” हैं, बल्कि केवल वही लोग धन्य हैं जो अपनी इस आध्यात्मिक दरिद्रता और दीनता को देख पाते हैं और इसे महसूस करते हुए पूरी तरह से यीशु मसीह पर सच्चा विश्वास के द्वारा उनके प्रति समर्पण मे बने हैं। यदि यह हमारे जीवन की वास्तविकता है तो यह वास्तव में दर्शाता है कि हम मे नया जीवन होना चाहिए।

लेकिन यदि यह (मत्ती 5:3-12) के गुण और विशेषताएँ  आजतक कभी भी आपके जीवन का हिस्सा नहीं रहे है, तो इससे यह ठहरता है कि आप वास्तव में आजतक कभी भी ”मन के दीन” नहीं रहे हैं, और आप आजतक कभी भी परमेश्वर के धार्मिकता के लिए वास्तव में भूखे और प्यासे नहीं रहे हैं, और आप ने आजतक कभी भी इसके लिए इच्छा और चाहत नहीं रखे है। तो इसका मतलब यही होता है, कि आप अभी भी खोए हुए स्थिति मे हैं और आप अभी भी अपने पापों और अपराधों में मरे हुए हैं, और आपको नये सिरे से जन्म लेना होगा।

यीशु कहते हैं, “मैं तुझ से सच सच कहता हूँ, यदि कोई नये सिरे से जन्मे तो परमेश्‍वर का राज्य  देख नहीं सकता।अचम्भा कर कि मैं ने तुझ से कहा, ‘तुझे नये सिरे से जन्म लेना अवश्य है।‘’  यूहन्ना 3:3,7

 

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